Haaya meer

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लघुत्तम समापवर्तक

'धप्प' की आवाज सामान्य जन के सुनने भर को नहीं थी। बाग में बैठे लोग सदियों से इस ध्वनि के इंतजार में वहाँ उपस्थित रहते आए हैं। वहाँ उपस्थित चारों विभूतियाँ पलक झपकते ही एक साथ आवाज की दिशा में चल निकली। एक साथ कहना थोड़ा असंगत हो सकता है क्योंकि पंडित कुंदन शुक्ला उर्फ सोनू उर्फ सोनुआ की इंद्रिय और मनोबलीय शक्तियों का परीक्षण बहुधा मौकों पर हो चुका था। सोनू के स्टिरियो सिस्टम और 'धप्प' के सूखी पत्तियों की चुरमुराहट की ध्वनि के साथ के मिश्रण ने आभास दिया कि आम या तो चोपहवा का है या मलदहवा का। जाहिर है कि सोनू सबसे आगे थे लेकिन, वह जानते थे कि आगे रहने से ही गिरा आम नहीं मिलता है। उसके लिए जरूरी है पैनी नज़र व हर तरफ देखने की चुस्ती और थोड़ा भाग्य। उनके तेज दौड़ने में बाधक बन रही थी उनकी हाफ-पैंट। जो मानी जाती थी हाफ-पैंट लेकिन, उनके घुटने से कुछ नीचे ही थी।


तेरह साल के रविंदर शुक्ला उर्फ बच्चन जो सोनू के सबसे बड़का बाबू के सबसे छोटका सुपुत्र और सबसे बड़की माई के पेटपोछना दुलारे हैं। उनकी पुरानी घिसी पैंट उनसे चार साल छोटे कुल जमा नौ साल के सोनुआ को पहनाते समय उनकी दादी रस्सी से जरूर बाँधती थीं लेकिन, पैंट में जमा ईंट-पत्थर के टुकड़ों तथा अन्यान्य सामग्रियों के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण वह नीचे की ओर अग्रसर रहती। सोनू दौड़ते समय भी उसको खींच कर ऊपर कर रहे थे।

चोपहवा का पका गाढ़ा हरा आम पेड़ के ठीक नीचे पत्तियों पर गिरा पड़ा था। सोनू दौड़ते हुए आए, आम उठाया और दौड़ते हुए ही आगे निकल गए। उनका ध्येय पीछे के तीन प्रतिद्वंद्वियों से सुरक्षित क्षेत्र में निकल जाने का था। जब वह रुके तब पीछे दौड़ने वाले बच्चन, नन्हकऊ और कैलाश भी रुक गए। ये सभी उनके चचेरे भाई हैं। वह त्रयी जिस तरह से रुकी तथा उनकी व्यूह रचना जारी रही, सोनू को खतरे की आशंका होने लगी।

सोनू को पता है कि उनके बाबू जिंदा होते तो इस तरह से एक-एक आम के लिए उन्हें संघर्ष नहीं करना पड़ता। उनके ये चचेरे भाई, जिनमें बच्चन को छोड़ कर शेष दोनों मँझले बाबू के सुपुत्र हैं। मँझले बाबू, बड़का बाबू के चमचा हैं और उनके दोनों पूत बच्चन के।

जाती जून की गर्म चढ़ती दोपहरी में सब हो रहा था। बड़का बाबू ने बाग के सारे आम बेच दिए थे और खरीदने वाले ने उन्हें तुड़वा लिया था। अब वही आम बचे थे जो बड़े पेड़ों में ऊपर बहुत ऊपर थे और जिन पर समर्थ पुरुषार्थियों की नजर-ए-इनायत नहीं हुई या हुई भी तो वह तोड़ने में असफल रहे। आमों की संख्या कम होने से उनके लिए चाहत बढ़ गई थी।

सोनू बीच में थे। नन्हकऊ और कैलाश उनके अगल-बगल आ चुके थे। बच्चन सामने। आम सोनू के बाईं मुट्ठी में और दाहिनी मुट्ठी अभी खाली थी। दोनों पक्ष एक दूसरे को तौल रहे थे। जहाँ वो खड़े थे वहाँ तेज धूप थी। पहल बच्चन ने की।

'आम दे दो।'

मैंने पहले उठाया है।'

'उससे क्या हुआ, तू जमीन उठा लोगे तो जमीन तुम्हारी हो जाएगी।', समवेत हँसी के इंतजार और उसके होने के बाद बच्चन फिर बोले', छोटका चाचा ने अपने हिस्से की जमीन बेच दिया, सोनू बच्चा, तुम्हारा अब कुछ नहीं है।'

'जमीन ही बेची है ना बाग तो नहीं बेचा है। बाग में हमारा हिस्सा है।'

'तू हिस्सा लोगे, ले हिस्सा।', कहते हुए बच्चन उग्र हो चुके थे। कमजोर के लिए तर्क की व्यर्थता के बारे में वह जानते थे।

उन्होंने सोनू को कालर से पकड़ा और दो तमाचे गाल पर लगा दिए। सोनू के लिए यह सब प्रत्याशित था लेकिन, हमला इतनी जल्दी हो जाएगा, इस समय का आकलन नहीं कर पाए थे। अब उन्होंने बदली स्थिति का फिर से आकलन किया और आक्रमकता के अपने नैर्सगिक प्रतिभा के उपयोग को ही उचित समझा। अपने दाहिने हाथ को उन्होंने जेब में डाला और एक ईंट का टुकड़ा निकाला, उसको अपनी मुठ्ठी में जमा लिया और बच्चन की तरफ लपके। बच्चन ने जब सोनू को आते देखा तब वह सोनू को कंधे से पकड़ कर उसी पर लद गए। सोनू ने ईंट वाली मुठ्ठी से दो-तीन घूँसे पीठ में लगाए जिससे बच्चन बिलबिला गए। बच्चन ने अपनी पूरी ताकत से सोनू को पीछे धकेला, उसके गिरने पर पैर से मारा, फिर पीछे हट गए। सोनू जब तक खड़े हुए बच्चन कुछ दूर निकल गए थे। सोनू ने अपनी मुठ्ठी के पत्थर को जोर से बच्चन की ओर फेंका, पत्थर सनसनाता बच्चन के बगल से गुजरा।

दोनों हाँफ चुके थे, लड़ने की बहुत गुंजाइश अब नहीं बची थी।

अब तक नन्हकऊ और कैलाश चश्मदीद की तरह खड़े थे। उनकी अम्मा ने समझाया था कि रहना बच्चन के साथ लेकिन, दूसरे की मार-पीट में नहीं पड़ना।

झगड़ा समाप्त हो रहा था लेकिन, रगड़ा हमेशा की तरह बचा हुआ था।

बच्चन बोले, 'यह जो मेरी पैंट पहने हो इसको वापस करो।'

संभावित अपमान के दृश्य की कल्पना में तीनों को मजा आ गया।

'तुम्हारी अम्मा ने दिया है, वह कहेंगी तो वापस कर देंगे।', कह कर तर्कशील सोनू चल दिए।

आम अभी भी सोनू के बाईं मुठ्ठी में दबा था।

थोड़ा आगे जाने पर सोनू ने मुठ्ठी खोली, दबाव पड़ने से आम मे दरारें पड़ गई थीं। जिससे निकल कर रस हाथ में लिपट गया था। सोनू ने जीभ से पूरी हथेली चाटी। चोपहवा आम की अद्भुत मिठास, चोपी का कसैलापन और धूल की करकराहट एक साथ जिह्वा के स्वाद ग्रंथियों से टकराए। पहले उन्होंने सोचा कि आम और हथेली दोनों धुल लिया जाए। उन्हें यह विचार त्यागना पड़ा क्योंकि कब कौन सी विपत्ति कहाँ से आन पड़े! इसलिए तय किया पहले आम का स्वाद ले लेना उचित होगा। उन्होंने आम का भरपूर सेवन कर लिया।

आगे गया सिंह की पाही (खेत का घर) पर ट्यूबवेल चल रहा था। वहाँ हाथ-मुँह धुला, मन ललच गया - देखा आसपास कोई नहीं है - बनियान उतारी - रस्सी खोल कर पैंट निकाली और नंगे होकर नहा लिया। नहाने और कपड़े पहनने के बाद अगले पड़ाव का विचार करने लगे।

मेहुड़ा ताल के पास जामुन अभी बची है। लेकिन, सोनू वहाँ जाना नहीं चाहते। वहाँ उनकी अम्मा डूब कर मरी थीं।

अम्मा को जब भी वह याद करना चाहते हैं उनकी परिधि में कई सारी कहानियाँ गरम गोलों में तैरने लगतीं हैं। अम्मा का चेहरा उन्हें याद नहीं है। याद कर सकने वाली उनकी उम्र नहीं थी। अम्मा कैसी थी, वह किसी और से जानना भी नहीं चाहते। वह इतना जानते हैं कि जब वह रात में कोठरी में दादी के पास सो जाते हैं तब, अम्मा उनके सिरहाने बैठ कर पंखा झलती हैं। अम्मा की साड़ी का कोना पकड़ कर वह सोते हैं लेकिन, जब भी अम्मा का हाथ पकड़ना चाहते हैं - वह गायब हो जातीं हैं।

यह बात सोनू किसी को बताते नहीं, लोग कहेंगे भूत-प्रेत वाली बात है। उनकी अम्मा भूत-प्रेत कैसे हो सकतीं हैं। वह डरते वैसे किसी से नहीं हैं। न भूत-प्रेत से न चुड़ैल-डाकिनि से, न साँप, बिच्छी, गोजर, विषखोपड़ा न डाकू, गुंडा, शैतान से और न ही भगवान से। यहाँ तक कि वह बड़का बाबू से भी नहीं डरते हैं। अब अम्मा से डरने की कोई बात हो ही नहीं सकती।

बेशक अम्मा सशरीर उनकी स्मृतियों में नहीं हैं। जिस रात घर से उनके निकलने और सुबह ताल में पाए जाने की गवाही दादी देती हैं, उस रात में वह तीन साल के आस-पास थे और बहुत तेज जाड़ा पड़ रहा था। कई सालों में एक बार पड़ने वाला तेज जाड़ा। इस तेज जाड़े की बात हर बताने वाला करता है। बात उनके अम्मा के मरने की शुरू होती है और जाड़े की चर्चा होने लगती है। वह अम्मा की मौत के बारे में जानना चाहते और उनकी जानकारी उस साल के तेज जाड़े के बारे में बढ़ने लगती। अम्मा का जब भी जिक्र होता, तब जिस हालात में सोनू रहते उसी में ठहरे रहते। खड़े रहते-खड़े ही रहते। अगर बैठे रहते-बैठे ही रहते।

बाबू के मरने की चर्चा में भी उनकी स्थिति कुछ-कुछ ऐसी ही रहती। हाँ, उस समय दुख थोड़ा बढ़ जाता। वह जानते थे कि बाबू नहीं मरते तो अम्मा भी नहीं मरती। बाबू नहीं मरते अगर वह मारे नहीं जाते। वह मारे नहीं जाते अगर वह फौजदारी में नहीं फँसते। फौजदारी उन्हें इसलिए करनी पड़ी क्योंकि, वह निकम्मे, आवारा, जुआरी, शराबी, गाँजे के लती थे और छोटे-मोटे झगड़े व चोरियाँ किया करते थे। इसलिए घरवालों या कहें बड़का बाबू से अगर दद्न मिश्रा का झगड़ा घूर की जमीन पाटने के लिए हो और बड़का बाबू घर में रख्खा भरा कटट बाबू के हाथ में दें दें, तो बाबू कहाँ तक अपनी जिम्मेदारियों से बचते।

फौजदारी में सब जेल गए। बाबू के हिस्से की जमीन बिकी और बड़के तथा मँझले बाबू की जमानत हो गई। बाबू को जमानत नहीं मिली, वह मुख्य अभियुक्त थे। घूर पर बड़का बाबू का कब्जा हो गया। एक दिन जेल में ही बाबू को खून की उल्टी हुई, कहते हैं अस्पताल जाते-जाते बाबू मर गए।

बाबू की मौत की बात बताने वाले सूचनाकार फिर जेल की रहन की बात बताने लगते। उसी में अस्पताल की चर्चा होने लगती। माफियाओं, नेताओं और कई तरह-तरह के प्रसंग उठते लेकिन, बाबू को फिर याद नहीं किया जाता। सोनू वैसे ही खड़े-खड़े या बैठे-बैठे पैर के नाखून से मिट्टी खोदते रहते।

धूप से धरती जल रही थी। सोनू मेहुड़ा ताल के लिए निकले, तब उनके पैर जलने लगे। वो दौड़ने लगे। दौड़ते समय उनकी पैंट खिसक रही थी, उनकी नाक भी बह रही थी। जिसे उन्हें बीच-बीच मे पोछना पड़ता लेकिन, ये कष्ट पैर में धरती से होने वाली जलन की तुलना में नगण्य थे। जब सोनू ताल तक पहुँचे, वो हाँफ चुके थे। ताल पर सन्नाटा था केवल रहमान चाचा एक कोने में मछली मारने की बंसी लगा कर पेड़ के नीचे बैठे थे। सोनू उनके पास जाकर बैठ गए।

'पंडिजी पा-लागी', छेड़ते हुए रहमान चा बोले।

सोनू के चेहरे पर मुस्कान खिली फिर गायब हो गई।

रहमान चा उनके बाबू के खास दोस्तों में थे।

'राजा बाबू कहाँ डोल रहे हो', बोलते हुए चा की आँखे बंसी पर ही लगी थी।

सोनू को दोनो वाक्य, जवाब देने लायक नहीं लगे इसलिए चुपचाप एकटक पानी के बीच देखते रहे।

लोग कहते हैं, अम्मा जब डूबी थीं, उनके पेट में बच्चा था।

सोनू के सबसे तकलीफदेह समय की शुरुआत सूचनाकार के इस सूचना के देने से होती। बताने वाला देर-सबेर बड़का बाबू तक पहुँच ही जाता।

रहमान चा एक अखबार पर लाई-चना फैला चुके थे। अखबार उन्होंने सोनू के करीब कर दिया और खुद मुट्ठी में भर कर खाने लगे।

अगर अभी अम्मा पानी से निकलें और सोनू से कहें, 'चलो घर चलो।' तब तो रहमान चा भौच्चके हो जाएँगे।

कहीं उधर झाड़ियों के झुरमुट से बाबू भी निकल आएँ और कहें, 'का हो रहमान कैसे हो।' रहमान चा का मुँह खुला का खुला रह जाएगा और मुट्ठी की लाई गिर जाएगी।

चाचा के एक दौर का चबैना समाप्त हो गया था उन्होंने दोबारा मुट्ठी भर लीं। सोनू ने खाने का उपक्रम अभी नहीं किया था। जैसे उन्हें लगा कि वो टोके जाने वाले हैं, उन्होंने अपनी दोनों छोटी-छोटी मुट्ठियों में ले खाना शुरू कर दिया।

रहमान चा की गाँजे की चिलम बगल में पडी थी। बाबू भी गाँजा पीते थे। सोनू को इस बात का विश्वास था कि अगर समय पर वह बड़े रहते और उनके बाबू जिंदा रहते तो वह अपने पिता के सारे नशे छुड़वा देते। सोनू को नशों से नफरत है। उन्हें यकीन था कि उनके बाबू के मरने में नशे का ही योगदान है। दादी भी यही कहती हैं।

बाबू के बारे में दादी अच्छी बात कभी नहीं करतीं। घर का कोई सदस्य उपस्थित हो, तब बुराई शुरू कर देतीं हैं। अम्मा की चर्चा वो भूले से भी नहीं करतीं। दादी सबके सामने सोनू को दुलारतीं नहीं, दुलराने के अवसर-मनःस्थिति नहीं ही रहते। रात में सहन वाली कोठरी में साथ सुलातीं हैं। वहीं दादी-पोते का खाना भी बनता है। बड़का बाबू से दादी की कोई बातचीत नहीं होती, हालाँकि दादी बड़का बाबू या उनके आश्रितजनों के खिलाफ कभी नहीं बोलतीं। खिलाफ वह सिर्फ सोनू के रहतीं। सोनू को अँधेरा होने के बाद कहीं बाहर नहीं जाने देतीं। सोनू का किसी से झगड़ा होने पर बिना किसी सुनवाई के सोनू को पटापट मारने लगतीं। सोनू को उनकी मार से खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि दादी का अशक्त शरीर किसी को शारीरिक चोट पहुँचाने लायक नहीं और वो मारने का अभिनय ही करतीं या कर पातीं, मारतीं नहीं। साथ में धाराप्रवाह श्रापित किस्म की गालियाँ चलती रहती।

बड़का बाबू खास तरह से मारते।

उन्हें सोनू को सुधारने की इच्छा जब-तब उठ जाती, विशेषकर जिस दिन शाम को बाजार से लौटने के बाद उनके मुँह से देशी दारू के भभके उठते। ऐसे खास मौकों पर सोनू के बिगड़ने की किसी खबर से वे विचलित हो जाते और सोनू को सुधारने का अपना अमल पूरा करने लगते। इस प्रक्रिया को संचालित करने के लिए वो एक पतली डंडी खोजते या तोड़ते। तोड़ने-खोजने में कभी-कभी वो लदफदा कर गिर जाते। सोनू को हँसी आती लेकिन, इस हँसी को वो बाद के लिए जोड़ कर रखते। मार खाते समय सोनू दाँत पर दाँत जमा लेते, इससे चोट के दर्द में कोई राहत नहीं मिलती हाँ रुलाई रोकने में आसानी रहती। कैन के प्रहार से चोट अंदर और बाहर बराबर लगती। उसको भी, सोनू बाद के लिए जोड़ कर रखते।

इस कार्यक्रम का समापन दादी के आने से होता। जब दादी भी एक-दो सोंटा पा जातीं, तब लड़खड़ाते बड़का बाबू चारों दिशाओं को गालियों से गुंजायमान करते और ऐसे हरामी-नालायक की जिम्मेदारी की प्रवंचना करते अपने कमरे में चले जाते।

रहमान चा को अभी मछलियाँ कम ही मिली थीं, तीन सौरी और एक छोटी माँगुर। प्लास्टिक के डब्बे में पानी भर कर रखी मछलियों से सोनू खेलते रहे। फिर एक सींक लेकर पेड़ के नीचे बिलों के बड़े चींटों को लड़ाने लगे। चींटे पहले ईधर-उधर भागते लेकिन, सींक से एक-दूसरे पर धकेले जाने पर अपनी सूड़ों से जम कर लड़ने लगते। यह उनका पसंदीदा खेल है। थोड़ी देर बाद उन्हें इससे भी ऊब होने लगी। उन्होंने रहमान चा की तरफ देखा, दोपहर का उतरना हो रहा था - वो समेटने के अंदाज में लग रहे थे।

इस पूरे दरम्यान में रहमान चा पाँच-छः बीड़ी पी गए। वो आज कुछ चुप से थे। कभी बंसी को देखते, कभी ताल में निहारने लगते कभी सोनू को फिर खाली खेत में उठती गर्म गुबार को खाली उसांसों से देखने लगते। सोनू को लगा कि वो सोनू से कुछ कहना चाहते हैं।

सोनू के आस-पास दो तरह के लोग हैं। बहुत कम लोग हैं, जो सोनू को देख कर स्नेह से कुछ कहना चाहते हैं और बहुत सारे लोग जिन्हें सोनू को देख कर उनके बाबू की बदकारीयों का या अम्मा की कहानियों का ख्याल आ जाता और बेहद अश्लीलता से वो जिकर करने लगते, अपवादस्वरूप कभी-कभी नहीं करते। जब नहीं करते तब भी करते हुए से लगते।

सोनू उठे और बोले, 'चच्चा हम जा रहें हैं।'

रहमान जब तक बोले, 'तुम्हें चच्ची ने बुलाया है।' तब तक सोनू दौड़ना शुरू कर थोड़ा दूर निकल चुके थे और यह कहने के लिए रहमान को अपनी आवाज ऊँची करनी पड़ी।

'हाँ! आऊँगा।', बिना विराम लिए सोनू ने कहा, उन्हें देर हो रही थी।

स्कूल के पास के मैदान में क्रिकेट शुरू होने वाला होगा। दौड़ते ही वह वहाँ पहुँचे लेकिन, खेल स्थगित था। रबड़ की गेंद, जिससे खेल होता है, वह फट गई थी। किशोर से युवतर लड़कों की पूरी गोल सरस्वतीचंद्र को घेर कर खड़ी थी। सरस्वतीचंद्र मरकहवा मास्टर और उनकी पत्नी के काल्पनिक युगल संभोग दृश्य का भावपूर्ण शारीरिक-शाब्दिक अभिनय कर रहे थे।

सोनू थोड़ी दूर जाकर झंडे वाले चबूतरे पर बैठ गए। ठहाकों, जुगुप्सा भरी चीत्कारों के बावजूद सरस्वतीचंद्र जल्दी ही ऊब गए। वह झंड से बाहर आए तो उन्हें भीड़ से अलग अकेले बैठे सोनू दिखे। उनकी मिमिक्री कला और अभिनय क्षमता के लिए यह उनको अपमान सरीखा लगा। सरस्वतीचंद्र सोनू से मात्रात्मक बड़े थे, नागवार गुजरने का यह भी कारण था।

'का बे अच्छा नहीं लगा।', उनके स्वर में तैश था।

सोनू को अश्लील बातें नहीं पसंद है। वह कुछ नहीं बोले। इससे सरस्वतीचंद्र को अपना अपमान और भी बढ़ा हुआ लगा।

'तुम्हारी अम्मा और बड़का बाबू का शो दिखाऊँ।', वह अपमान की प्रतिक्रिया देने लगे।

'नहीं अपने बाबू रामचंदर और माई मिथुनी देवी का दिखाओ।', सोनू की आवाज में लरजता आक्रोश था।

हिंसा की संभावना बढ़ गई। कुछ नया दिलचस्प होने की उम्मीद में आसपास उत्सुक लड़के जमा होने लगे जो पूर्ववर्ती कार्यक्रम के समाप्त होने से खाली हो गए थे।

दोनो पक्ष एक दूसरे को तौल रहे थे। दोनो की आँखें एक दूसरे पर जमी थी। पता नहीं क्यों सोनू का एकटक देखना था या कोई और डर सरस्वतीचंद गाली देते बड़बड़ाते गाँव की ओर चल दिए।

आतंक के उपादेयता से सोनू अच्छी तरह से वाकिफ हैं। सोनू से अभी कोई डरता नहीं है। हालाँकि आतंक बनाए रखने के सारे उपक्रम वो करते हैं। इसके लिए उनको कुर्बानियाँ देनी पड़ती हैं। वो जानते हैं कि डर एक दिन में जन्म नहीं लेगा। वह धीरे-धीरे विकसित होगा। इस मामले में बच्चा भैया की की कहानियाँ उनके आदर्श हैं।

बच्चा भैया को उन्होंने एक बार ही देखा है और उनसे बहुत प्रभावित हो गए। बच्चा भैया सोनू के पट्टीदारी-खानदान के हैं और रिंकू सिंह गिरोह के खास शूटर हैं। उनकी उम्र बीस-बाईस साल ही है लेकिन, उनके आतंक के गौरव से पूरा खानदान आलोकित रहता है। घर छोड़े उन्हें चार साल हो गया। पुलिस उनके लिए बीच-बीच में आती है। बच्चा भैया देर रात कभी एकाध घंटे के लिए घर आते हैं। ऐसे ही एक रात का अवसर सोनू को मिल गया।

किसी बुजुर्ग ने उन्हें बच्चा भैया का पैर छूने को कहा। कुल के अधिकांश संभ्रांत वहाँ उपस्थित थे। कम संभ्रांत किस्म के लोग खींसे निपोरे खड़े थे और अधिक संभ्रान्त किस्म के लोग बैठे स्थानीय विवादों व राजनीति पर बच्चा भैया से राय कर रहे थे। लोगों में उनके प्रति आदर भाव, माहौल पर उनके नियंत्रण और महँगे फोटो वाले मोबाइल से कहीं बात करते बच्चा भैया के शांत व्यक्तित्व के ठंडेपन को सोनू ने आत्मसात कर लिया।

सोनू देर शाम जब घर पहुँचे, दोपहर के बाग की घटना की छाप वातावरण में पूरी-पूरी दिख रही थी।

बडकी अम्मा मुँह फुलाए मड़हा में चटाई पर बैठीं थी, बगल में दीन-हीन बने बच्चन बैठे थे। बड़का बाबू तख्त पर और उनके सामने कुर्सी पर बाभन टोली के सबसे खुराफाती समझे जाने वाले आद्या मिश्र थे। दादी छोटी चारपाई पर बैठी साग की पत्तियाँ तोड़ रहीं थी। सोनू को देख उनके चेहरे पर आई दीनता से यह बराबर लग रहा था कि इस प्रकरण को लेकर वह कई बार डाँट खा चुकी हैं। सोनू ने जब स्थिति में प्रवेश किया तब उनकी पहली समस्या अपने खड़े होने के सुरक्षित जगह के निर्धारण को लेकर थी। लेकिन, उतना समय उनको नहीं दिया गया।

उनके स्थिर होने के पहले दादी ने पूछा, 'तुमने बच्चन को ईंट मारा?'

सोनू मौन रहे।

उनके मौन में छिपे उत्तर को समझते हुए अपने क्रोध और नफरत को भरसक छिपातीं-उजागर करतीं बड़की अम्मा बोलीं, 'अगर ईंट लग जाता तो आँख जा सकती थी। कुछ भी हो सकता था। ऐसा दुलार किस काम का।'

दरअसल आद्या मिश्र का उपस्थिति से सभी असहज थे। कूटनीतिक भाव से बडकी अम्मा यह दर्शाने की कोशिश कर रहीं थी कि बड़का बाबू सोनू को दुलार करते हैं। आद्या मिश्र अपनी घनी मोटी मूँछों के नीचे मुस्कराने लगे।

बड़का बाबू कई परेशानियों से एक ही समय में गुजर रहे थे। वो आद्या मिश्र जैसे प्रपंची व खतरनाक आदमी के सामने कोई सुनवाई नहीं करना चाहते थे। इससे बड़ी समस्या यह थी कि कल रात से उन्हें दस्त हो रही थी और उसपर आज दिन भर वह एकादशी का व्रत थे। पूरे दिन उनका शरीर दुखता और वायु-पीड़ा की सभी समस्याओं से ग्रसित रहा। कमजोरी इस कदर कि वो ढंग से नाराज नहीं हो पा रहे थे। यहाँ तक कि उनकी बोलने की इच्छा नहीं हो रही थी।

व्रत के दिन वह शाम को पराठा और मीठी दही खाते हैं। इस पूरे घटनाक्रम के पहले वो आँख मूँद कर लेटे, मिलने वाले स्वाद का काल्पनिक परीक्षण कर रहे थे। बच्चन की अम्मा अधीरता से बच्चे पर हुए हमले की प्रतिक्रिया चाहतीं थी। इसी इंतजार में बैठी थीं। उन्होंने पराठे का आटा अभी नहीं गूँथा था। इससे बड़का बाबू को खाने में विलम्ब की प्रत्याशा हो रही थी। खाली पेट गुड़गुड़ा-गुड़गुड़ा कर अलग परेशान किए जा रहा था। इस सब के अलावा आद्या मिश्र सामने बैठे हैं।

बड़का बाबू भरसक संयत होकर मिश्र को संम्बोधित हो बोले, 'मेरे लिए जैसे बच्चन वैसे सोनू - अब अनाथ बच्चे की परवरिश कैसे मैं करता हूँ, मैं ही जानता हूँ।'

कुछ कमजोरी और कुछ स्थिति की फौरी निराशा से भहरा कर वह तख्त पर लेट गए।

रात में जब सोनू खाना खा कर उठे, उनकी दादी ने छिपा कर रखे दो आम दिए। सोनू ने उनको सुबह के लिए रख दिया और जमीन पर बिछे बिस्तर आकर लेट गए।

गर्मी में भी दादी उनको बाहर सोने नहीं देंती। फिर भी यह समय उनके पूरे दिन का सबसे अच्छा समय होता है। इसी समय में उन्हें किसी से और किसी से उनको परेशानी नहीं होती। दादी से बात करते हुए वो सो जाते हैं।

थोड़ी देर में दादी आकर लेट गईं।

बहुत दिनों से सोनू अपने मन की एक बात दादी से कहना चाहते हैं। उनका दोस्त रजमन पिछले दो महीनों से जीप पर खलासी का काम कर रहा है। रजमन से उनकी बात हुई थी। उसने सोनू के लिए भी वहीं काम दिलाने की हामी दी थी। अपनी उमर और ऐसे काम करने को लेकर सोनू को स्वयं संशय था और वह यह भी जानते थे कि दादी उनको अनुमति नहीं देंगी। सोनू तय नहीं कर पा रहे थे कि दादी से अपनी बात कैसे करें। करे भी या न करें। वह सरक कर दादी के पास सिमट गए।

दादी ने उनके पैर अपने हाथ में लिए, वो धूल से भरे थे। साड़ी के आँचल से पैरों को पोंछा और रुक-रुक कर सोनू के पैर दबाने लगीं।

प्रत्यक्षतः बोलीं, 'दिन भर कहाँ-कहाँ मँडराते हो।'

पैर के दबवाने से मिलते आराम से सोनू और सरक कर दादी से सट गए। उनकी ठोढ़ी दादी के स्तन से सट गई। दो दिन पहले उन्होंने कमलेश भैया की पत्नी को अपने बच्चे को दूध पिलाते देखा था। उनके सामने उन्होंने ब्लाउज हटा दूध बच्चे के मुँह में लगा दिया।

अपनी तरफ सोनू को एकटक देखता देख मजाक में बोलीं भीं थी, 'चाहिए का पंडितजी।'

सोनू शरमा कर भाग आए थे।

दादी अब सिर में उँगलियों से कंघी करते-दबाते बोलीं, 'बच्चन से झगड़ा मत किया करो।'

बाहर झींगुर तेज आवाज में बोल रहे थे - या तो एक साथ अगर एक साथ नहीं तो इतने सारे कि वो एक साथ का भ्रम कर सकें। उजाले पक्ष की रात को भी कमरे में दादी और सोनू एक-दूसरे को स्पष्टतः देख नहीं पा रहे थे। प्रकाश आने के लिए बनी खिड़की कोने में थी।

सोनू पीठ के बल हुए और बोले, 'अम्मा हमको दूध पिलातीं थीं।'

'हाँ।', कह कर दादी चुप हो गईं।

सोनू पूछना चाहते थे, 'कैसे' लेकिन, सवाल की निरर्थकता से अवगत थे इसलिए रुक गए।

थोड़ी देर के मौन के बाद सोनू ने पूछा, 'अम्मा हमको मानतीं थी?'

'हाँ, बहुत मानती थी।', दादी बेमन से नहीं बोली।

'और बाबू?'

'वो तुम्हें गोद में लेकर गाँव भर घुमाता रहता था।'

इस बार जो मौन बिखरा उसमें दोनों की अपनी-अपनी स्मृतियाँ पसर गईं।

थोड़ी देर बाद सोनू ही बोले, 'दादी तुम कब मरोगी?'

'हम अमर होकर आएँ हैं।', दादी शायद हँसी थीं।

'नहीं, तुम बताओ कि तुम कब मरोगी।'

'ये तो भगवान बताएँगे।'

'नहीं, तुम बताओ।', सोनू जिद्द पर थे।

'जब मौत आएगी।'

दादी इसके बाद चुप रहीं।

इस बार का मौन कम देर का था और सोनू किसी समझौते के निर्णय पर पहुँच रहे थे।

'दादी तुम चार-पाँच साल अभी नहीं मरना।', कहते हुये सोनू उठ कर बैठ गए और फिर बिल्कुल बच्चों की तरह फफक-फफक कर रोने लगे।

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